वर्षा ऋतू में जीवन का श्रृंगार हुआ

वर्षा ऋतू में क्या कहें
जीवन में हुई हलचल है
काली इन घटाओं को देख
तुम्हारी घनी लटों का आभास हुआ
यूँ बूंदे जब गिरी वृक्षों पर
तुम्हारे आलिंगन का आभास हुआ
नाचते मयूर को देख
ये ह्रदय भी पागल हुआ
वृक्षों से गिर जब धरती में सिमटी बूँदें
मेरे अंतर्मन में तेरे ही नाम कि पुकार हुई
पानी जब पहुँचा धरातल में
सींचा हर जड़ को उसने
बीज जो दबे थे धरती के गर्भ में
उनमें भी उन्माद हुआ
अंकुर फिर पनपा उनमें
तो धरती का श्रृंगार हुआ
देखो तो इन कोपलों से
एक नए जीवन का आधार हुआ
क्या कहूँ मैं तुमसे प्रिये
कि वर्षा ऋतू में जीवन का श्रृंगार हुआ

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