इश्क का कलमा

एक  सवाल कुछ ऐसा मन में आया – 
प्यार की गर इतनी चाह है तो तू खुद से प्यार कर
इतनी ही गर तड़प है तो खुदा से तू प्यार कर
ना कर प्यार की गुज़ारिश तू इस इंसान से
इसने तो खुदा को ना बक्शा, तेरी बिसात क्या है
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कुछ  सोच बदली तो उसका जवाब भी कुछ ऐसा आया –
शाम-ऐ-उलझन उनके बेवक्त आने से हुई
उन्हें अपनाने की ख्वाहिश उनसे मिलकर हुई
तूफां-ऐ-समंदर से अब क्या डरना
कि जब हम मोहब्बत कि कश्ती में सवांर हैं
अब तो जिद की ना कोई हद्द है
ना है डर अंजाम-ऐ-मोहब्बत का
है जान अब उनकी कातिलाना अदा के हवाले
कि अब तो इश्क ही हमारे खुदा की बंदगी है

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