आलम-ऐ-मोहब्बत

नज़रें हमारी जो उठीं, नज़ारे ना दिखे
गर कुछ दिखा तो उनके चेहरे का नूर
किन निगाहों से हम उन्हें देखें
कि दिखते हैं वो इश्क में चूर

उन्हें देख उनकी निगाहों को ना देखें
कि उनमें हमारा ही अक्स नज़र आता है
गर हया-ऐ-मोहब्बत में पलकें झुकाएं
तो पैमाना-ऐ-शबनम में उनका नूर नज़र आता है

नजदीकियां तो हैं पर चिलमन का पर्दा है
उनसे दूर हुए तो जेहन में उनकी आहट का खटका है
ना जाने खामोश लबों से वो क्या कुछ कह गए
अपनी निगाहों से हमें इश्क का जाम पीला गए

सोचते हैं उनके खामोश लबों को चूमना
पर उनकी कातिल मुस्कान में हम खो जाते हैं
वो बेखयाली में सोते हैं इस कदर हमारे दामन में
कि हम उनके तसव्वुर में खोये जाते हैं

उनकी मोहब्बत का आलम है कुछ ऐसा है
कि उनके आगोश में हम खुदको भुलाए जाते हैं
वो जाग ना जाए, यह सोच कर
हम अपनी धडकनों को दबाये जाते हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *