अंदाज़-ऐ-लफ्जात

चंद लाफ्जात ऐसे होते हैं, जिन्हें सुन कर रूह से एक आह निकलती है…..आज ऐसे ही कुछ कलाम पढ़ा तो एक रूह कि आह पर कुछ लफ्जात हमारे भी निकल पड़े….  पेश-ऐ-नज़र है वो चंद लफ्ज़ जिन्होंने हमारे कलाम को जन्म दिया –

बयाँ ना कर पाई ज़ुबान जो लड़खड़ाई
हम पे इल्ज़ाम बेवफ़ाई का!
नज़र मिलाया होता कभी तो एहसास होता
मेरी वफाए इबादत की गहराई का
“अजनी”

अब इन्ही लफ़्ज़ों पर हमारा कलाम कुछ ऐसा बना –

जान पाते वो हमारी इबादत
गर नज़र मिलाने का मौका देते
कि हमारी हया से झुकी पलकों को
बेवफाई का इल्जान दे गए

ना ये जाना, ना ये समझा
कि हया उनसे इश्क की थी
ना कभी हमसे ये पूछा
क्यों रोशन हमारी निगाहें हुई

आज देखते हैं हमें हिकारत से
जैसे खेलें हों हम उनकी अस्मत से
गर ना समझ सके हमारी मोहब्बत
तो हमें बेवफा तो ना कहते जाते

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