एक महफ़िल कि खामोशी, एक शायर का इन्तेकाल हो सकती है| उसपर चंद अल्फाज़ ज़ेहन में आये थे, पेश करता हूँ –
नगमें अफसानों के गाते हो और हमें दिवाना कहते हो
अरे हमने दिल दिया है, किसी का दिल तोडा तो नहीं
हमें बेवफा, बेगैरत, बेज़ार क्या कहते हो
हम किसी के दिलों से, एहसासों से नहीं खेलते
ज़रा नगमें अपने एक बार तुम देखो
उनके हर लफ्ज़ दिलों से, एहसासों से खेलते हैं
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यूँ हमें बेगैरत ना कीजे कातिल
कि महफ़िल में हम तन्हाई गुज़ार आये हैं
बेजार, बेआबरू होकर हम वहाँ से रुखसत हुए
सोचते हैं कि कलम को खामोश करने का वक्त आया है
हमारी जुबां से कलाम बहुत पढ़ लिए
अब तन्हाई में में खामोश रहने का वक्त आया है
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तुम्हे जानने की कभी थी हमें ख्वाहिश
और आज तुम्हे भुलाने को जी चाहता है
कभी हमारी इल्तजा थी तुम्हारे साथ जीने की
और आज तुम्हारे साथ जीने से दिल डरता है
कभी तुम हमारे जज्बातों से खेले हो
और आज हमपर जान निसार करते हो
यूँ तकल्लुफ ना करो तुम इश्क का
कि तुम्हारी नज़रों से खून-ऐ-जिगर बहता है