भोर भई सूरज उंगने को हैपर ये व्यथा कैसी ह्रदय में हैनींद नहीं आँखों मेंचंचल चित भी चिंतित है कोई तो पीड़ा है इसेव्यक्त नहीं करता उसेनिद्रगोश में जाने सेक्यों व्यर्थ व्याकुल है मनन चिंतन भी अब व्यर्थ हैकठिन अब दिवस व्यापन हैघनघोर पश्चाताप को व्याकुलनिराधार ये पागल है ना समझ है ये ना सुनता …