इज़हार-ऐ-इश्तियाक

तरन्नुम-ऐ-गुजारिश है तन्हाई से
कि राहगुज़र को एक लम्हा आसरा दे
उल्फत-ऐ-इश्क से आया है बेआसरा
इसको अपनी जुल्फों का साया दे

अन्ज-ऐ-इज्तिराब से बेआबरू हो चला है
आब-ऐ-तल्ख़ से प्याला इसका भरा है
इत्तिहाम बेवफाई का ओढ़ ये गरीब
आज दर पे तेरे बेआसरा खडा है

कहता है मुझसे की राज़-ऐ-दिल किससे कहूँ
कि अब भी मेरा सामान सौदाई के पास पड़ा है
कैसे कहूँ उससे कि वो लौटा दे मेरा सामान
कहीं मेरी याद दिला वो हुस्न को रुसवा ना कर दे

सोचता है कि इज़हार-ए-इश्तियाक कैसे करे
कि उफ्ताद-ऐ-हालात से नाउमीद है ये
कफस-ऐ-नफरत में क़ैद है ये काफिर
कौल-ऐ-हुस्न पर कुर्बान-ऐ-मोहब्बत कर

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