मयंक की एक उर्दू पोएम –
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कैसे कहें ये कहानी हम अपनी जुबानी
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कैसे कहें ये कहानी हम अपनी जुबानी
कुछ ऐसी ही बीती है हमारी जिंदगानी
करते रहे हम सजदा उनका हर कदम
सोचते रहे वो बनेंगे हमारे हमदम
शायद था वो कोई ख्वाब एक सलोना
बना गया हमें इश्क में ही दीवाना
सवालात भी किये ज़माने ने हमारी तन्हाई पर
कि नहीं कोई ज़वाब हमारे पास उन सवालों का
ना सच कहने का होंसला था ना उन्हें बेपर्दा करने का
गम-ऐ-उल्फत का किस्सा हम कहते उनसे कैसे
कैसे बयाँ करते कि गम-ऐ-जुदाई कैसे सहते आये हैं
कैसे हम अपनी बेज़ार जिंदगी की कहते कहानी
कि कैसे बयाँ करते उनसे अपने दर्द का किस्सा
कैसे दिखाते उन्हें हम आब-ऐ-तल्ख़ की गहराई
चंद सवालात जो उन्होंने आज किये हमसे
हमारे निकाह के जैसे छेड़े उन्होंने किस्से
कसीदे पढ़ गए वो हमारी खुशियों के इस कदर
कैसे बयाँ करते उनसे हम अपनी ज़िंदगी की ग़दर
लम्हात हम ढूँढते हैं चंद खुशियों भरे
वो लम्हात जिनमें हम ज़िंदगी को जियें
ना मिले वो लम्हात इस सफर-ऐ सिफर में
ना मिली हमें खुशी उम्र की इस कगार तक
इल्तज़ा किससे करें जब किस्मत ही रूठी
क्या शिकवा करें जब ज़िंदगी की लड़ी ही टूटी
कैसे कहें ये कहानी हम अपनी जुबानी
कुछ ऐसी ही बीती है हमारी जिंदगानी
सवालात भी किये ज़माने ने हमारी तन्हाई पर
कि नहीं कोई ज़वाब हमारे पास उन सवालों का
गम-ऐ-उल्फत का किस्सा हम कहते उनसे कैसे
कैसे दिखाते उन्हें हम आब-ऐ-तल्ख़ की गहराई
लम्हात हम ढूँढते हैं चंद खुशियों भरे
इल्तज़ा किससे करें जब किस्मत ही रूठी
कसीदे पढ़ गए वो हमारी खुशियों के इस कदर
कैसे बयाँ करते उनसे हम अपनी ज़िंदगी की ग़दर
लम्हात वो ना मिले हमें जिनमें हम जिंदगी जीते
दो लम्हात वो ना मिले जो उनको हमारे नज़दीक लाते