कितनी मासूमियत से आपने
अपने ज़ख्मों का हिसाब रखा है
कि हिजाब में छुपा आपने
अपने लबों पर लफ़्ज़ों को रोका है
अपने ज़ख्मों का हिसाब रखा है
कि हिजाब में छुपा आपने
अपने लबों पर लफ़्ज़ों को रोका है
कभी जिंदगी के किसी मोड पर
क्या आपको अपना सितम याद आएगा
कि आपकी ही मेहरबानी है
जो आज एक इंसान खुद से अजनबी हो चला है
कितनी मासूमियत से आपने
हमसे एहसास-ऐ-जुदाई बयान किया है
कि हिजाब आपका आज बन रहा है
कफ़न हमारी मोहब्बत का
क्या कभी ज़िंदगी की राह पर
किसी रोज हम हमसफ़र बन् पाएँगे
कि आपकी मोहब्बत पर परवान है
हर मंजिल हमारे प्यार की
कितनी मासूमियत से आपने
अपने लबों पर लफ्जों को रोका है
अपनी हया के हिजाब को हुस्न-ऐ-जाना
आपने हमारी मोहब्बत का कफ़न बना रखा है