सुखा सावन

अबके बरस सावन सुखा बीत गया
ना पपीहे की प्यास बुझी 
ना प्यासी धरती को मिला पानी
सूखे खेतों में बैठ, किसान तक रहा अपनी हानि
क्या जी रहे हैं इस धरा पर इतने पापी
जिनके पाप सह प्यासी धरा है काँपी
क्या जन जीवन के लहू से सिंची है धरा
कि ना मिली उसे सावन में नदिया की धारा
अबके सावन जब आया, हुंकार मची चंहूँ दिशा
लहू के चीत्कार से क्या देवों को ज्ञात हुई मानव मंशा
छोड़ देवभक्ति क्या मानव चला दानवों की राह
क्या अधर्मी मानव के कर्मो से हुआ सावन का दाह
अबके बरस बीत गया सुखा सावन
ना हुआ धरा पर जन जीवन पावन
पापों से थी लज्जित धरा
ना मिला उसे पानी, ना नदिया की धारा

Comments

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *