कहने को क्या कहें कि कहने को शब्द नहीं
बाहों में हम किसे लें, अपना कहने को कोई नहीं
देखते जिस ओर हैं, समय का दिखता फेरा
बढ़ें जिस ओर भी डगर पर दिखता काँटों का डेरा
जाएँ भी तो इस जहाँ में कहाँ जाएँ हम
स्वर्ग सी धरती पर भी नृत्य करती हिंसा
कहने को क्या कहें कि कहने को शब्द नहीं
धरती को जननी कैसे कहें जो पीती लहू का प्याला
किससे कहें और क्या कहें, हर किसी की है अपनी पीड़ा
हर मानस के काँधे पर है अपने परिजन का बीड़ा
देखूं जिस ओर आज लाश ढोता दिखता मानव
जिस दिशा मैं देखूं दिखता राज करता दानव
कहने को क्या कहें कि कहने को शब्द नहीं
बाहों में अब किसी लें कि कहलाने को अपना कोई नहीं
जाएँ भी तो इस जहां में कहाँ जाएँ हम
कि हर दिशा में निकल रहा है मानवता का ही दम