चला जब में जीवन डगर में
दिखा सर्व ओर अँधियारा मुझे
तभी दिखी दूर मुह्जे रौशनी
बढ़ चला में उसी दिशा में
पास पहुँच देखा मैंने
रौशनी थी वहाँ लालटेन की
चारो ओर उसके थे बैठे बच्चे
पढ़ रहे थे अपने पाठ
जो पूछा मैंने उनसे क्या है उनका ध्येय
बोला एक नन्हा मुझसे
दिन में करता हूँ मैं खेतों में काम
रात मास्टरजी से मैं लेता हूँ ज्ञान
विस्मित कर गयी मुझे उसकी बात
खड़ा सोच रहा था मैं यही
कि सनाढ्य घरों में बच्चे
करते हैं कुछ अलग ही
सोचो तो जीवन का है ये कैसा खेला
एक घर जिसमें है धन वैभव
रौशनी से तो है भरा-भरा
किन्तु ज्ञान का वाहन अभाव है
दूजा घर जिसमें नहीं खाने को दाना
ना है उस घर में धन धान्य
बच्चा उस घर का है कितना धनी
कि ज्ञान सागर में है हिचकोले खाता
क्या यही थी धारणा मानव की
कि बनी कवाहत कुछ ऐसी
कि खिलता है कीचड़ में ही कमल
साफ़ पानी में हम झक मारते हैं
वाह रे सरकार तेरी माया निराली
जिसे चाहिए उसे नहीं मिलती बिजली||