उन्मुक्त जीवन जीने की चाह में
चल दिया मैं पैसा कमाने
भूख प्यास सब भुला दिए मैंने
चल दिया मैं ऐश्वर्य कमाने
पैसे की अंधाधुंध भूख में
ऐश्वर्य की अंधभक्ति में
भूल बैठा मैं अपना ध्येय
खो बैठा मैं सबका श्रेय
ना जाने किस पल अपनों से दूर हुआ
ना जाने किस पल मैं विलीन हुआ
ना जाने किस पल मैं अज्ञात हुआ
ना जाने किस पल मैं पार्थिव हुआ
मुद कर देखा जब मैंने
ना पाया एक भी अपना
जब देखा अपनी राह पर
तो पाया ध्येय विलुप्त था
दिशा विहीन सा भटक गया था मैं
अपनी ही मृगतृष्णा में विलुप्त हुआ मैं
ऐश्वर्य की अंधी दौड़ में
खुद से ही दूर हुआ कुछ ऐसा मैं
दूर निकल आया अपनी राह पर
जहां ना कोई आदि है ना अंत
ढूँढता था जिस सफलता को मैं
मिली नहीं वो भी इस त्याग पर्यंत
देखा फिर एक मस्त मौला को
बैठे एक पेड़ के नीचे
ना था उसके पास खाने को निवाला
फिर भी झूम रहा था श्री हरी को कर याद
थी एक अजब ही धुन उसकी
थी एक अजब ही उसकी शक्ती
जिसे समझा था मैं जीवन हाला
झूम रहा था वही पी उसका प्याला
है कैसी ये ईश्वर की माया
बनायी कैसी ये मानव काया
कुछ तो डूबी है सांसारिक मोह में
तो कुछ ने भक्ति में ही रस पाया||