स्त्री के विचारों का उदगार

विगत दिनों में जो घटित हुआ, 
उससे मन बड़ा ही आहत हुआ|
चंद् विचार मन में ऐसी आये 
कि एक कविता का सृजन हुआ 
करती है कविता एक स्त्री के विचारों का उदगार
कि हुआ कैसे उसके औचित्य का प्रचार….
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माँ की कोख में सोती जब मैं
जग मुझे चाहे मारना
जब ले जन्म आऊँ मैं जग में
धरा पर मुझे चाहे लिटाना
बचपन से ही सहा मैंने भेदभाव
रहा मुझे सदा ही सुखों का अभाव
कोई कहता ऐसा करो 
तो कोई कहता वैसा करों
खिलोनो से रखा मुझे सदा दूर
ना हुई कभी जीवन में भोर
कहा कभी मुझे रखो मुंह बंद अपना
सीखो जरा संसार में दुःख सहना
प्रताड़ना का था ना कोई अंत
कैसे करती मैं हृदयाग्नि का अंत
दमन बहुत सहा मैंने अपना
किन्तु दब के रहना ना था मेरा सपना
क्यों मैं कुछ सुनु, क्यों प्रताड़ना सहूँ
स्त्री हूँ मैं, हूँ मैं जग जननी
भगवान् बन तू बैठा जग का
पर बिन मेरे ना है तेरी सृष्टी
क्या यही सोच हुआ था मेरा सृजन
जब होना ही था मेरे अस्तित्व का दमन
उठ तू खोल अपना त्रिनेत्र
वज्र उठा कर तू दुष्टों का विनाश||

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