तरक्की की होड़

जब हम छोटे बच्चे थे
दिल से हम सच्चे थे
जात पात का नहीं था ज्ञान
भेद भाव से थे अनजान
जब हम छोटे बच्चे थे
गली में जा खेला करते थे
छत पर रात रात की बैठक थी
चारपाई पर सेज सजती थी
जब हम छोटे बच्चे थे
मिलकर एक घर में रहते थे
राह हमारी एकता की थी
सारे रिश्तों में सच्चाई बसती थी
घर में जो एक टीवी था 
दूरदर्शन उसमें चलता था
बुनियाद हमारी पसंद थी
महाभारत और रामायण भी देखी थी
अब समय और हो चला है
अब हमारे बच्चे हैं
दूरियां अब हमारे बीच हैं बढ़ी
रिश्तों में भी दरार पड़ी
अब हम अपने घर में रहते हैं
तमाम चैनल्स देखते हैं
मिलने का अब वक़्त ढूँढते हैं
फेसबुक और स्काइप पर मिलते हैं
रिश्तों में अब ना वो महक है
ना है डोर रिश्तों की पक्की
चेहरे पर अब मुस्कान तो होती है
पर दिलों से गर्मजोशी गायब है
जब हम छोट्टे बच्चे थे
साथ में हम रहते थे
आज जब हमारे बच्चे हैं
हम अपनों से बेगाने रहते हैं
तब हम दिल से रिश्ते निभाते थे
आज हर रिश्ता बोझ लगता है
तरक्की की होड़ में हमने 
गवां दिए हैं कुछ अपने||

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