Month: August 2015

पशोपेश

सामने मेरे इतना नीर है  बुझती नहीं फिर भी मेरी प्यास है  जग में बहती इतनी बयार है  रुकी हुई फिर भी मेरी स्वांश है  साथ मेरे अपनों की भीड़ अपार है  फिर भी जीवन में एज शुन्य है  चहुँ और फैला प्रकाश है  फिर भी जीवन यूँ अंधकारमय है  नहीं जानता जीवन की क्या …

धर्मनाश

बैठे सहर से सहम कर  सोच रहे हैं अपने करम  रहना है हमें इसी जहाँ में  जहां बदलते हर कदम धर्म  भूल कर जीता है इंसान  इंसानियत का मूल धर्म  उसका धर्म है सबसे ऊँचा  पाल लिया है बस ये भ्रम  प्यार मोहब्बत और जज़्बात  नहीं है आज इनका कोई मोल  धर्म के नाम पर …

आधी रात में न्यायपालिका खुली

आधी रात में न्यायपालिका खुली  लगी न्याय की बोली  जनता वहां सो रही थी खुली यहाँ  न्याय की पोथी  एक आतंकी को बचाने  आये धर्मनिरपेक्ष नाटक रचाने  कितना धन कितना परिष्श्रम  वो भी एक हत्यारे बचाने यदि यही कर्म करने हैं  तो खोल दो न्याय द्वार  चौबीसों घंटे खोलो वो पोथी  करो हर घडी हर पल …

धर्मनिरपेक्ष गुलाम

कहते हैं वो टोपी पहनते हैं  जा कर दुआ सलाम करते हैं  क्या बदल सकते हैं का इतिहास  क्या करा सकते हैं सच का आभास चेहरा सच का देखने को कहते हैं क्या खुद के सच से वो अवगत हैं  धर्म संप्रदाय की बात करते हैं  क्या अपने धर्म से  परिपूर्ण हैं  इफ्तार में हम नहीं …

खामोशियाँ

खामोशियाँ मेरी पहचान है  कहीं दूर लफ़्ज़ों की दूकान है  पथ्थर से सर्द आज मेरे होंठ हैं  जुबां भी अब बेजान है  ये ज़िन्दगी जिस मोड़ पर है  खामोशियों में ही मेरी आवाज़ है  दफ़न है आज दर्द भी  हर मोड़ पर तेरी याद है  खामोशियाँ आज मेरा अक्स हैं  खामोशियों से ही मेरी पहचान …