धर्मनिरपेक्ष गुलाम

कहते हैं वो टोपी पहनते हैं 
जा कर दुआ सलाम करते हैं 
क्या बदल सकते हैं का इतिहास 
क्या करा सकते हैं सच का आभास
चेहरा सच का देखने को कहते हैं
क्या खुद के सच से वो अवगत हैं 
धर्म संप्रदाय की बात करते हैं 
क्या अपने धर्म से  परिपूर्ण हैं 
इफ्तार में हम नहीं जाते 
वो कहते हमें सांप्रदायिक हैं 
टोपी हम नहीं पहनते 
वो कहते हमें काफ़िर है 
अरे मंदिर मस्जिद में अंतर नहीं है 
अंतर तुम्हारे अपने मन में है 
धर्म की राजनीति करते हो 
और हमें अधर्मी कहते हो 
मान लेते हैं हम तुम्हारी बात 
 कहेंगे हम भी ईद मुबारक साथ तुम्हारे 
बस एक बार मस्जिद में बैठ 
वो प्रसाद मोलवी को खिला दो
अरे धर्मनिरपेक्षता के गुलामों 
चलो साथ कदम से कदम मिला
यदि मस्जिद का फतवा मानते हो 
तो जरा गीता का भी मान कर लो!!

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