अपनो में बेगाने

अफ़सुर्दा हुए जाते हैं अफसानों में 
अजनबी आज बन बैठे हैं हम अपनों में 
बेगानो से क्या शिकवा करें अब 
अपने ही साथ नहीं हमारे जब 
बैठ बेगानो में तन्हा बसर करते थे 
अब तो अपनों में खुद बेगाने लगते हैं 
साथ ना जाने कहाँ छूट गया हमसे 
अब तो बस सवालों में सहूलियत ढूंढते हैं 
एक ज़माना बीत गया सा लगता है 
अब तो हर साथ भी तन्हा सा लगता है 
तकल्लुफ उठा कर भी साथ बेअसर है 
जैसे डूबती कश्ती से माझी बेखबर है 
अफसानों में अब कहीं हम नहीं 
अपनों में भी अब हम अपने नहीं 
छूट गया है वो जहाँ कहीं
हुआ करते थे जहां शक के घेरे नहीं॥ 

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