चिंतन मनन की यह धरा थी
आज इसपर भी मंथन कर दिया
अनेकता में एकता की यह धरा थी
आज उसको भी तुमने तोड़ दिया
सागर मंथन से निकला विश पी
शिव शम्भु ने जग को तारा था
अब इस धरा मंथन का विश
कौन शिव बन पी पाएगा
उस युग में तांडव कर
शिव ने धरा से दानव को ललकारा था
इस युग में दानव के तांडव से
कौन शिव बन धरा को तर जाएगा
चिंतन मनन की यह धारा थी
आज इसपर भी मंथन कर दिया
उस विश से तो शिव ने तारा था
यह विश स्वयं लहू पीकर ही मानेगा
अनेकता में एकता की यह धरा थी
उसको तुमने आज तोड़ दिया
हंस कर जो गले मिलते धे
उस मुख को तुमने आज मोड़ दिया
चिंतन मनन की यह धरा थी
जिसपर अनेक होकर भी हम एक थे
अपने स्वार्थ को बहलाने के लिए
उस धरा को तुमने रक्तपान कर दिया।।