तू

तू जब गुलाब सी यूँ खिलती है
मैं भँवरा बन वहीं मँडराता हूँ 
तू जब जाम से छलकती है 
मैं वहीं मयखाना बसा लेता हूँ
तू जब कहीं खिलखिलाती है 
मैं वहीं अपना घर बना लेता हूँ
जीवन के लम्बे इस सफ़र में
तुझे मैं हमसफ़र बनाए जाता हूँ
तू भले अपना राग गाती है 
मैं उसे ही जीवन संगीत बनाता हूँ
तू भले ही ना सुने मेरी
मैं फिर भी तेरी ही माला फेरता हूँ
कानों पे जो ताले हैं, बातों से पाले हैं
उनपर अपनी सोच की चाबियाँ लगा
बात जो बाक़ी है, आँखों से झाँकी है
उन बातों पर सोच की चाबियाँ लगा
तू एक नदिया, मारे अठखेलियाँ 
ठहरा पानी, खाऊँ हिचकोले 
फिर भी जिस ओर तू जाए
वहीं बहा चला आता हूँ
तू जब गुलाब सी यूँ खिलती है
मैं भँवरा बन वहीं मँडराता हूँ 
जीवन के लम्बे इस सफ़र में
तुझे मैं हमसफ़र बनाए जाता हूँ।।

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