हृदय पर तेरे शाब्दिक बाण के घाव लिए
इस संसार में यूँही भटकते रहते हैं
हृदय में लिए तुझसे बिछड़ने की पीड़ा
आज जीवन जीने की कला सीख रहे हैं
तुम मरने की क्या बात कर रहे हो
यहाँ कितने हृदय में पीड़ा लिए जीते है
जीवन का हलाहल पी जीते है
अपनो से बिछड़ने का विश पी रहते हैं
तुम क्या कुछ कर सकते थे, तुम कर चुके
अब शाब्दिक बाणों से खेलते हो
हृदय पीड़ा तुम क्या जान सकोगे
जब ख़ुद पीड़ा सहने से डरते हो
यहाँ हर वक़्त हर पीड़ा सह कर जीते हैं
तेरे हर शब्द सुन चुप रहते हैं
ना जाने कौन किसे कह गया
कि अब तेरे ही आने की राह तकते हैं।।
Poem composed with a very wayward line of thoughts!!