काश कि कुछ ऐसा होता
जिसमें कुछ खट्टा कुछ मीठा होता
हर लम्हा मैं उन्हें ही पूछा करता
गर उन्हें ज़रा सा भी मेरा इल्म होता
अब क्या कहें और किससे कहे
कि ना वो वज़ूद रहा ना रब का वास्ता
कहीं आब-ऐ-तल्ख़ है छुपा ज़िन्दगी में
तो कहीं अश्क-ऐ-फ़िज़ा भी खामोश है
अब तो एक ही सुरूर ज़िंदा है जहाँ में
कि कैसे कोई इन्तेहाँ इंतज़ार करे।
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