कोमलाँगी

गरज बरस मेघा सी क्यों लगती हो
चमक दमक बिजली सी क्यों चमकाती हो
क्यों काली घटाओं सा इन लटों को घुमाती हो
क्यों अपने नेत्रों से अग्निवर्षा करती हो
अधर तुम्हारे पंखुड़िया से कोमल हैं जो
उन अधरों से क्यों घटाओं सी गरजती हो
नेत्र विशाल कर माथे पर सलवटें
क्यों माश्तिष्क से विकार जागृत करती हो
हृदय से कोमलाँगी जो हो
क्यों हृदय को शीर्ष पर पहुँचाती नहीं
नेत्रो से अधरों तक सुंदर
क्यों नेत्रों से प्रेम वर्षा करती नहीं
कैसे इस ललाट पर शिवनेत्र जगाकर
स्वयं में स्वयं को लुप्त करती हो
क्यों सरस्वती लक्ष्मी सी अपनी देह को
काली का स्वरूप दे जाती हो
गरज बरस मेघा सी क्यों लगती हो
चमक दमक बिजली सी क्यों चमकाती हो
नेत्रो से अधरों तक सुंदर
क्यों नेत्रों से प्रेम वर्षा करती नहीं

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