याद आते हैं बचपन के वो दिन
जब खेलते थे हम गलियों में
उधम जब करते थे दोस्तों संग
हर त्यौहार पर होता था हर्षो-उमंग
क्या दिन थे वो भी हमारे अपने
कि बारिश की बूंदों में नाच उड़ते थे
कलकल करते रह के पानी में
कागज़ की कश्ती बना चलाया करते थे
ना जाने कहाँ खो गए हैं वो दिन
ना जाने कैसे अधूरी सी लगती है उमंग
आज वो गालियां भी सूनी है
सूना है हर घर का आँगन
जहाँ बच्चे करते थे अठखेलियां
वहां फैला है एक अजब सा सूनापन
हाथों में मोबाइलफोन लिए
बीत रहा है उनका बचपन
ना गलियों में है वो रौनक
ना बरसात के बूंदों में कोई खनक
अब तो बरसात है पानी भी बह जाता है
अपनी बूंदो में कश्तियों की राह तकते