हमने तो अकेलेपन में अपना जीवन पाया है
कभी धूप कभी छाँव तो कभी बरसात को अपनाया है
अपने हृदय के उद्गार को शब्दों में पिरोकर
अपनी लेखनी से कविताओं में बसाया है
कभी किसी उद्गार से विवश होने की जगह
उसे अपने जीवन की ढाल बनाया है
मिले राह में पथिक बहुत ऐसे भी
जिन्होंने हमारे इस प्रकरण को लजाया है
फिर भी हम रुके नहीं कभी हम थमें नहीं
बस हर बार लेखनी से शब्दों को ही पिरोया है
ना कोई पीड पराई ना कोई संताप हमारा
कभी कुछ हमें ना विचलित कर पाया है
द्वेष, राग से परे होकर हमने रोग को किया पराया है
रुष्ट हो कर भी हमने, अपने ही हृदय को संजोया है
जीवन में मृत्यु को निकट से देखकर
फिर एक कविता को शब्दों से पिरोया है