ये घर ऐसा ना था

मैं भारत हूँ, सदियों से सब देख रहा हूँ
अपने घर आये मेहमान को सह रहा हूँ
आये थे मेरे द्वार ये आश्रय लेने
आज मुझे आश्रित करने को आतुर हैं

जाने कहाँ से आए घर मेरा हथिया लिया
कहीं तंबू में सोने वाले ने इस धरा को हथिया लिया
आश्रय क्या दिया मैंने इनको ताप से बचाने के लिए
मेरे अपनों का ये तो धर्म बदलते चल गए

ना उन्होंने मेरी माटी छोड़ी ना ही मंदिर छोड़े
कुछ को ये बदलते चले गये, बाक़ी सब तोड़े
मेरी ही गौद में जाने कितनो ने दम तोड़े
आँधी ने इनकी ना जाने कितनो के कदम मोड़े

आज जब चित्त फिर जाग उठा निद्रा से
आज जब फिर माथे पर लगा तिलक चंदन से
आज जब फिर गूंज रहा सनातन का नारा
आज जब फिर नमन मुझे कर रहा जाग सारा

वो कहते हैं घर ऐसा ना था
कि रौनक़ का यह चौबारा था
हाँ यह घर कभी ऐसा ना था
यहाँ कभी शरिया का ज़ोर ना था

हाँ यह घर कभी ऐसा ना था

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