हिम की धधकती ज्वाला

हिम की सिल्लियाँ उडी हवा में
साथ उडी कुछ मानव देह भी
सर्द इस संध्या में गूंज उठी घाटी
गर्जन हुई ऐसी, दहल गयी दिल्ली भी

श्वेत चादर से ढंकी ये घाटी
थी कभी शांती का प्रतीक
आज सजी है ये लहू से
धधकती कुछ ज्वाला सी

ज्वाला जो प्रज्वलित करती
देवों की दीपमाला को
आज प्रज्वलन कर रही वो
इस धरा पर गंगा की धारा को

घिर गया है आतंक यहाँ पे
छुप गयी है मानवता भी
देव बसा करते थे जहाँ पे
तांडव कर रहे दानव ही

हो रहा यहाँ धर्म के नाम पर
कुछ और नहीं अधर्म का मर्म है
कब जागेगा मानव यहाँ पे
कब वो सुनेगा अंतर्मन की

हिम की सिल्लियाँ उडी हवा में
साथ उडी कुछ मानव देह भी
देव बसा करते थे जहाँ पे
तांडव कर रहे दानव ही

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *