क्यूँ करते हो ये शिकवा
कि थोडा और बरस लेने दो
जीवन की प्यास बुझने दो
मझधार में ना यूँ कश्ती छोडो
कि किनारे तक मुझे खेने दो
डूबने का डर नहीं मुझे
ना ही जीने की है तमन्ना
सोचता हूँ गर कभी
तो देखता हूँ तेरा ही सपना
कि थोडा और बरस लेने दो
जीवन की प्यास बुझने दो
मझधार में ना यूँ कश्ती छोडो
कि किनारे तक मुझे खेने दो
डूबने का डर नहीं मुझे
ना ही जीने की है तमन्ना
सोचता हूँ गर कभी
तो देखता हूँ तेरा ही सपना