तुझे चाहने की सज़ा पाता हूँ
तेरे ही गम में अपना लहू जलाता हूँ
ना चाहते हुए भी अक्सर तेरे अक्स में
मैं अपनी रौशनी ढूंढें जाता हूँ
रोशनाई कहीँ कम ना पडे
ये सोच के अपने लहू से
मैं ये नज़्म लीखे जाता हूँ
गुजारीश करता हूँ आपसे आज
ना ही करो रुसवा यूं मेरी चाहत को
ना झुकाओ पलकें यूं
भर नफ़रत नीगाहों में
और यही इल्तजा है आज ए सनम
की मरहम बन इस नासूर-ए-दिल का
ले आगोश में लावारीस मेरी इस लाश को
सुकून मीलेगा मेरी रूह को तेरे साथ से
की जीते जी तेरा साथ ना मिल तो क्या
मर कर तेरा साया जो नसीब हुआ