जीवन द्वंद्व में लीन है मानव ढूंढ रहा जग में स्वयं को नहीं कोई ठोर इसका ना दिखाना दूर है छोर, ढूंढने का है दिखावा नहीं किसी को सुध है किसी की अपने ही जीवन में व्यस्त है हर कोई ढूंढ रहा है हर कोई स्वयं को छवि से भी अपनी डरता है हर कोई …
दम्भ प्राकृतिक है या प्रकृतिकैसे करें है कैसी यह शक्तिविचार विमर्श भी किससे करेंअपनी व्यथा कहाँ धरेंहर और यहाँ दम्भ है फैलाजीवन को क़र गया मटमैला जिससे पूछो दम्भ की औषधिजताता है वही दम्भ की विधिपंहुचा ईश्वर के भी द्वारकी प्रार्थना कर दम्भ का संहारदम्भ से भरा ईश्वर भी बोलामानव है तू बहुत ही भोला …
यही सब चल रहा है बरसों से हो रहा सीताहरण सदियों से सभ्यता का कर रहे चीरहरण मना रहे शोक कर अपनो का मरण ना स्वयं अब जिवीत हैं ना जिवीत है इनमें मानवता विलास का करते है सम्भोग फैला रहे केवल दानवता यही सब चल रहा है बरसों से अम्ल बह रहा है नैनों …
कुछ दूर निकल आये हैं घर की खोज में अकेले ही निकल आये हैं एक नए घर की खोज में साथ अब ढूंढते है तेरा घर की खोज में एक था वो दिन जब रहते थे तेरी छाँव में फिर दैत्यों ने किया दमन तेरी गोद में लहू की नदियां बहाई, तेरी धरा पर बहनो की …
आज के नेताओं का धर्म क्या है किसकी वो करते हैं पूजा कभी हुई ऐसी जिज्ञासा कभी उठा है कोई ऐसा प्रश्न गौर करोगे तो जानोगे उनकी जात राजनितिक अभिलाषा है उनका धर्म करते हैं वो सत्ता की पूजा नहीं पैसे से बढ़कर उनके लिए कोई दूजा कोई बड़ा नहीं कोई छोटा नहीं उनके लिए सर्व …
सत्ता का लालच देखो देखो इनकी मंशा नहीं किसी को छोड़ा इन्होने भारत माँ तक को है डंसा आरक्षण पर राजनीति खेल रहे कर रहे देश के टुकड़े जात पात में हमको बाँट रहे कर रहे धर्म के टुकड़े सूखे की राजनीति खेली खेली इन्होने लहू की होली दम्भ के ठहाकों के बीच कर रहे …
आरक्षण की मांग पर जल रहा, राष्ट्र का कोना कोना रोती बिलखती जनता को देख रहे नेता तान अपना सीना आरक्षण की अगन में पका रहे राष्ट्र नेता अपनी रोटी बन गिद्द नोच नोच खा रहे जनता की बोटी बोटी रगों में आज लहू नहीं बह रही है जाति आदमी की भूख रोटी की नहीं हो गई है आरक्षण …
धर्मान्धता की आंधी चली उसमें बह चली राष्ट्र की अस्मिता तुम बोले मैं बड़ा, हम बोलेन हम बड़े किन्तु क्या कभी सोचा है राष्ट्र हमसे बड़ा पहले मानव ने धरा बांटी फिर बने धर्म के अनुयायी ना जाने कहाँ से पैदा हुए नेता ले आये बीच में धर्मान्धता मानव को मानव से बांटा चीर दी …
कुछ तो लोग कहेंगे जोक्स से वो जरूर चिढ़ेंगे उनको तो बस करना है मनमानी बद्तमीजी है उनको करनी क्या खुद कहते हैं क्या खुद करते हैं उससे बेपरवाह रहते हैं लेकिन दुनिया में कहीं कोई कुछ करे तो उसपर ऐतराज़ करते हैं खुद दुनिया को कहें अपशब्द तब खुद का बड़प्पन मानते हैं वहीँ …
वो मरता है तो मरने दो नेता हैं तो क्षमा मांग लेंगे उसके मरने से उनको क्या वो तो सत्ता के नाम मरता है फांसी वो लगाये, चाहे खाए विष नेताओं को उससे क्या लेना है सत्ता के गलियारों में बस दो चार पल उसपर बोलना है किसान हो वो, या किसी का पिता इससे नेताओं का क्या …