Poem – Hindi

घनघोर घटा छाई

घनघोर घटा छाई  रे, घनघोर घटा छाई  रेमेरे मीत के मिलन की बेला आई रेआई रे मिलन की बेला आई रेघनघोर घटा छाई रे – २ मन व्याकुल हो चला, मन व्याकुल हो चलाना जाने कौन चितचोर इसे मिलाजाने कौन दिशा संग ये किसके चलामन व्याकुल हो चला – २ अब कित जाऊं मैं, कि घनघोर घटा छाई …

शिवामृत

आज मधुशाला में इतनी मधु नहींकि बुझ जाए जीवन की प्यासकिस डगर तू चलेगा राहीकिस राह की कैसी आसपाने को क्या पाएगा चलतेबैठ यहाँ, यहीं बनाएं एक शिवालाक्यों ढूँढू मैं कहीं कोई मधुशालाआ पीते हैं बैठ यहाँ शिवामृत का प्याला

आरक्षण का अभिशाप

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई  बाँट चुके भगवान को  धरती बांटी अम्बर बांटा  अब ना बांटो इंसान को  धर्म स्थानो पर लहू बहाया  कर्मभूमि को तो छोड़ दो  ज्ञान के पीठ में अब तुम  ज्ञान का सागर मत बांटो  जाट गुज्जर पाटीदार जो भी हो  इसी धरा की तुम संतान हो  बहुत हो चुके बंटवारे धरा के  अब और …

आरक्षण का दानव

आरक्षण की मांग पर  जल रहा,  राष्ट्र का कोना कोना  रोती बिलखती जनता को   देख रहे नेता तान अपना सीना  आरक्षण की अगन में पका रहे  राष्ट्र नेता अपनी रोटी  बन गिद्द नोच नोच खा रहे  जनता की बोटी बोटी  रगों में आज लहू नहीं  बह रही है जाति  आदमी की भूख रोटी की नहीं  हो गई है आरक्षण …

धर्मान्धता

धर्मान्धता की आंधी चली उसमें बह चली राष्ट्र की अस्मिता  तुम बोले मैं बड़ा, हम बोलेन हम बड़े  किन्तु क्या कभी सोचा है राष्ट्र हमसे बड़ा  पहले मानव ने धरा बांटी  फिर बने धर्म के अनुयायी  ना जाने कहाँ से पैदा हुए नेता  ले आये बीच में धर्मान्धता  मानव को मानव से बांटा  चीर दी …

पशोपेश

सामने मेरे इतना नीर है  बुझती नहीं फिर भी मेरी प्यास है  जग में बहती इतनी बयार है  रुकी हुई फिर भी मेरी स्वांश है  साथ मेरे अपनों की भीड़ अपार है  फिर भी जीवन में एज शुन्य है  चहुँ और फैला प्रकाश है  फिर भी जीवन यूँ अंधकारमय है  नहीं जानता जीवन की क्या …

आधी रात में न्यायपालिका खुली

आधी रात में न्यायपालिका खुली  लगी न्याय की बोली  जनता वहां सो रही थी खुली यहाँ  न्याय की पोथी  एक आतंकी को बचाने  आये धर्मनिरपेक्ष नाटक रचाने  कितना धन कितना परिष्श्रम  वो भी एक हत्यारे बचाने यदि यही कर्म करने हैं  तो खोल दो न्याय द्वार  चौबीसों घंटे खोलो वो पोथी  करो हर घडी हर पल …

धर्मनिरपेक्ष गुलाम

कहते हैं वो टोपी पहनते हैं  जा कर दुआ सलाम करते हैं  क्या बदल सकते हैं का इतिहास  क्या करा सकते हैं सच का आभास चेहरा सच का देखने को कहते हैं क्या खुद के सच से वो अवगत हैं  धर्म संप्रदाय की बात करते हैं  क्या अपने धर्म से  परिपूर्ण हैं  इफ्तार में हम नहीं …

कुछ तो लोग कहेंगे

कुछ तो लोग कहेंगे  जोक्स से वो जरूर चिढ़ेंगे  उनको तो बस करना है मनमानी  बद्तमीजी है उनको करनी  क्या खुद कहते हैं क्या खुद करते हैं  उससे बेपरवाह रहते हैं  लेकिन दुनिया में कहीं कोई कुछ करे  तो उसपर ऐतराज़ करते हैं  खुद दुनिया को कहें अपशब्द  तब खुद का बड़प्पन मानते हैं  वहीँ …

बेटी

ये कैसा राष्ट्र है मेरा ये कैसा देश है मेरा जहाँ सोना है माँ की गोद में छुपना है माँ के आँचल में और खाना है माँ के हाथ से पर बेटी से नहीं भरना घर ये कैसी सोच है हमारी ये कैसा समाज है हमारा जहाँ राखी बांधने को बहन चाहिए साथ खेलने को सखी …