सामने मेरे इतना नीर है बुझती नहीं फिर भी मेरी प्यास है जग में बहती इतनी बयार है रुकी हुई फिर भी मेरी स्वांश है साथ मेरे अपनों की भीड़ अपार है फिर भी जीवन में एज शुन्य है चहुँ और फैला प्रकाश है फिर भी जीवन यूँ अंधकारमय है नहीं जानता जीवन की क्या …
आधी रात में न्यायपालिका खुली लगी न्याय की बोली जनता वहां सो रही थी खुली यहाँ न्याय की पोथी एक आतंकी को बचाने आये धर्मनिरपेक्ष नाटक रचाने कितना धन कितना परिष्श्रम वो भी एक हत्यारे बचाने यदि यही कर्म करने हैं तो खोल दो न्याय द्वार चौबीसों घंटे खोलो वो पोथी करो हर घडी हर पल …
कहते हैं वो टोपी पहनते हैं जा कर दुआ सलाम करते हैं क्या बदल सकते हैं का इतिहास क्या करा सकते हैं सच का आभास चेहरा सच का देखने को कहते हैं क्या खुद के सच से वो अवगत हैं धर्म संप्रदाय की बात करते हैं क्या अपने धर्म से परिपूर्ण हैं इफ्तार में हम नहीं …
कुछ तो लोग कहेंगे जोक्स से वो जरूर चिढ़ेंगे उनको तो बस करना है मनमानी बद्तमीजी है उनको करनी क्या खुद कहते हैं क्या खुद करते हैं उससे बेपरवाह रहते हैं लेकिन दुनिया में कहीं कोई कुछ करे तो उसपर ऐतराज़ करते हैं खुद दुनिया को कहें अपशब्द तब खुद का बड़प्पन मानते हैं वहीँ …
ये कैसा राष्ट्र है मेरा ये कैसा देश है मेरा जहाँ सोना है माँ की गोद में छुपना है माँ के आँचल में और खाना है माँ के हाथ से पर बेटी से नहीं भरना घर ये कैसी सोच है हमारी ये कैसा समाज है हमारा जहाँ राखी बांधने को बहन चाहिए साथ खेलने को सखी …
आशाओं से भरा ये जीवनया जीवन से बनी आशाएंकिस बात को हम मानेकिस डगर पर हम जाएंदेखें यदि जीवन कोतो लगता है नीरस बिन आशा केकिन्तु पहलू दूसरा देखेंतो जीवन से भी हैं आशाएं जीवन की हर डगर परबीज आशा का बोते हैंआगे बढ़ते हुए हम जीवन मेंसफलता की आशा करते हैंबिन आशा के जीवन अधूरा …
धधकती ज्वाला में खोया है हर कोई ना अपनों में ना परायों में पाया है कोई दुःख की तपिश में आज जीता है हर इंसान सुख की ललक में बन रहा वो हैवान था वक़्त कभी जब अपनों में बैठा करते थे दुखों की ज्वाला पर अपनत्व का मलहम लगाते थे था वक़्त कभी जब …
अठखेलियाँ खाती नदी की धारा से सीखा क्या तुमने जीवन में क्या सिर्फ तुमने उसकी चंचलता देखी या देखा उसका अल्हड़पन कभी देखी तुमने उसकी सहिष्णुता या कभी देखी उसकी सरलता नदिया के प्रवाह में छुपी अपनी कहानी है उसकी अठखेलियों में भी छुपी जीवन की अटूट पहेली है कैसी शांत प्रवृति से एक नदिया …
वो मरता है तो मरने दो नेता हैं तो क्षमा मांग लेंगे उसके मरने से उनको क्या वो तो सत्ता के नाम मरता है फांसी वो लगाये, चाहे खाए विष नेताओं को उससे क्या लेना है सत्ता के गलियारों में बस दो चार पल उसपर बोलना है किसान हो वो, या किसी का पिता इससे नेताओं का क्या …
जब हम छोटे बच्चे थे दिल से हम सच्चे थे जात पात का नहीं था ज्ञान भेद भाव से थे अनजान जब हम छोटे बच्चे थे गली में जा खेला करते थे छत पर रात रात की बैठक थी चारपाई पर सेज सजती थी जब हम छोटे बच्चे थे मिलकर एक घर में रहते थे …