Poetry

मात-पिता

नैनो की भाषा ना समझ पाए  ना समझ पाए उनके कुछ संकेत अधरों से वो कुछ बोल ना पाए हृदय को हमारे छू ना पाए बढ़े थे जिस डगर पर साथ उनके उसपर झुककर उन्हे संभाल ना पाए एक छोर तक साथ चले वो हमारे उसके आगे हम उन्हें थाम ना पाए कुछ भाषा ना …

रिश्तों का आलम

फ़िज़ाओं के रूख से आज रूह मेरी काँप उठी है कि तनहाइयों के साये में मेरी ज़िंदगी बसर करती है जिनको अपना समझा था वे बेग़ाने हो गए जिनके साथ का आसरा था वही तूफ़ान में छोड़ चले गए की अब तो आलम है कुछ ऐसा कि रिश्तों से ही डर लगता है ढूँढते थे …

दम्भ में चूर ईश्वर

दम्भ प्राकृतिक है या प्रकृतिकैसे करें है कैसी यह शक्तिविचार विमर्श भी किससे करेंअपनी व्यथा कहाँ धरेंहर और यहाँ दम्भ है फैलाजीवन को क़र गया मटमैला जिससे पूछो दम्भ की औषधिजताता है वही दम्भ की विधिपंहुचा ईश्वर के भी द्वारकी प्रार्थना कर दम्भ का संहारदम्भ से भरा ईश्वर भी बोलामानव है तू बहुत ही भोला …

बात की बात

कहीं दिन कहीं रात की है बात कि लफ़्ज़ों से मुलाक़ात की है बात नहीं कोई शिकवा किसी लम्हे से हमें  गर इस नज़्म का तकल्लुफ़ ना हो तुम्हें कि यहीं एक बात से निकलती है एक बात कहीं दिन तो कहीं रात में गुज़रती है बात लफ़्ज़ों से कहीं तो कहीं अदाओं से कही …

सिंगार

कोई बादर गरजे, कहीं बिजुरिया चमके  जब तेरा कंगना खनके  अंगना मेरा महके, चिड़िया वहां चहके  जब पायल तेरी छमके  झुमका तेरा मचाये शोर  बिंदिया तेरी उड़ाए निंदिया  अधरों पर तेरी गुलाब सी लाली  नैना जैसे हो काजर से काली  गजरे से तेरे उठी वो महक  ह्रदय भी उससे गया चहक  ना कोई बदरा ना कोई बिजुरिया  …

जीवन द्विविधा

कहने को बहुत कुछ थालेकिन सुनाते किसकोजिन्हें जीवन का आधार समझाउन्होंने हमें कभी ना समझा जिस दर पर आज हम हैंउस दर को खोलेगा कौनजिस राह हम चल रहे हैंउसपर राहगुज़र बनेगा कौन कहने को बहुत कुछ थाकिन्तु आज सुनेगा कौनकरने को भरोसा तो हैकिन्तु हमपर भरोसा करेगा कौन इष्ट को अपने हम पूजते हैंकिन्तु …

पथिक

चला जा रहा अपने पथ पर अनभिज्ञ अपने ध्येय से जो मोड़ आता पथ पर चल पड़ता पथिक उस ओर विडम्बना उसकी यही थी न मिला कोई मार्गदर्शक अब तक केवल चला जा रहा था अज्ञानी एक पथभ्रष्ट सा हर पथ पर खाता ठोकर हर मोड़ पर रुकता थककर किन्तु फिर उठता चलता अज्ञानी एक …

सूखा आज हर दरिया

सूखा दरिया सूखा सागर ख़ाली आज मेरा गागर सूखे में समाया आज नगर हो गई सत्ता की चाहत उजागर बहता था पानी जिस दरिया में आज लहू से सींच रहा वो धरा को अम्बर से अंबु जो बहता था आज ताप से सेक रहा वो धारा को सूखा आज ममता का गागर सूखी हर शाख़ …

क्या घर मेरा बन जाएगा शिवाला

विष से भरा है आज मेरा प्याला  जीवन मंथन की है यह हाला  कटु है आज हर एक निवाला  विष से भरा है आज मेरा प्याला  कैसा है यह द्वंद्व जीवन का हर पल है जैसे काल विषपान का  कैसा है यह पशोपेश मेरा  हर ओर दिखता मुझे विष का डेरा   ना मैं शिव हूँ ना है …