कहीं तुम जब दिखे थे, थे एक अजनबीकहीं तुम जब मिले थे, थे एक अजनबीफिर कहीं तुमसे हुई पहली मुलाक़ातथी वो एक अजीब सी रात हवा में थी तुम्हारी ही अपनी ख़ुशबूतारों का नहीं था तब ख़ुद पर क़ाबूफिर ना जाने कहाँ से शुरू हुए तरानेयादों में भी लगे हम उन्हें अपनाने
डियर ज़िन्दगी तू बेशक हमें नचालेकिन कुछ गाने तो अच्छे बजाकि तरानों में तेरे हम खो जाएँबेशक हम मदहोश हो जाएँ!! ज़िंदगी बोली फिर हमसेतुम मेरी धुन पर नाचते हो कबसेगानों की तो यूँ फ़रमाइश करते होकभी उनमें डूबी धुन भी सुनते हो? इन तरानों की तुम बात भी मत करनातुमको तो बस आता है …
शोर पायल की झंकार काहाथों में खनकती चूड़ियों का साँसों में महकते गजरे का कहीं आपको ढूँढना है तो आइये कभी मेरे गाँव में खिला बचपन जिन कलियों मेंलड़कपन बीता जिन गलियों में खेले लुकाछिपी जिन दालानों में मिले कंचे जहां खदानों से देखना है तो आइए मेरे गाँव में वो खिलखिलाता सा सूरज वो चहचहाते से पंछीवो महकता सा बाग़ानवो गदराये …
मैं भारत हूँ, सदियों से सब देख रहा हूँअपने घर आये मेहमान को सह रहा हूँ आये थे मेरे द्वार ये आश्रय लेने आज मुझे आश्रित करने को आतुर हैं जाने कहाँ से आए घर मेरा हथिया लियाकहीं तंबू में सोने वाले ने इस धरा को हथिया लियाआश्रय क्या दिया मैंने इनको ताप से बचाने …
मैं सनातन हूँ है मेरी कथा निरालीज्ञान से भरा हूँ लेकिन ख़ाली मेरी प्यालीजिसने जब चाहा मुझे निचोड़ा हैजब जिसका मन चाहा मुझे तोड़ा हैमेरे अपने बैठे दर्शक दीर्घा मेंमूक मौन से घिरे इस करतब मेंचिर निद्रा में सो गये थे अनजानेफिर आया मोदी उन्हें जगाने झँझोड़ा जब मोदी ने उनकोतानाशाह की पदवी दे दी …
लहरों की चंचलता अठखेलियाँ लगाती हुईसागर की गहराई उनकी चंचलता समेटती हुईकहीं दूसरे छोर पर अंबर के आँचल में सिमटीसूरज की किरणे उजास फैलाती हुईयही दृश्य है सुबह की बेला में यही खेल है प्रकृति की गोद में
जीवन की कुछ अपनी ही गाथा है इसकी पहेलियाँ सागरमाथा है तुम चाहे जितना भी जतन करो यह कहेगा छलनी से जल भरो जीवन की डोर है भगवान के हाथों में कहते फिर भी है कि भाग्य है कर्मों में फिर क्यों गीता के अध्याय में क्यों है कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन हर समय जीवन …
निशा के प्रथम प्रहर से प्रतिक्षित हैं किंतु निद्रा हमें अपने आलिंगन में लेती नहीं कविता की पंक्तियों में जब खोना चाहें तब कविता की कोई पंक्ति कलम पर आती नहीं किससे कहें और क्या कहें कि अब तो शब्दावली भी साथ निभाती नहीं निद्रालिंगन में जितना हम जाना चाहते हैं निद्रा हमें अपने आलिंगन …
भ्रष्ट तुम मुझे कहते हो अपनी लीला जब करते हो क्यों भूल जाते हो अपनी करनी जब भूखों को रोटी नहीं देते थे जब देश में था चोरो का राज जब कर्मचारी नहीं करते थे काज कर्जे में डूबा था हर कण देश खो रहा था प्रगति का रण भ्रष्ट तुम मुझे कहते हो आज जब …