“प्रेम” एक ऐसा शब्द है जिसे सुनते ही हर किसी की बांछे खिल जाती है। फिर वो कोई बच्चा हो, युवा हो, युवती हो या कोई अधेड़ या वृद्ध। लेकिन यहाँ पर हर कोई एक ही गलती करता है और वह है प्रेम की परिभाषा को समझना और प्रेम शब्द को केवल एक ही रिश्ते से बांधना!!
प्रेम की अगर परिभाषा की बात करें तो प्रेम सच, विश्वास , आदर एवं सम्मान का समागम है। प्रेम सत्यता का प्रमाण है और उसमें कुटिलता का कोई स्थान नहीं है; प्रेम विश्वास का अथाह सागर है जिससे आप जितना चाहे रिश्तों ना गागर भर सकते हैं, बिना विश्वास के प्रेम का औचित्य नहीं है; बिन आदर एवं सम्मान के भी प्रेम का टिकना असंभव है। अतएव अडिग एवं अटूट प्रेम में सत्य, विश्वास, आदर एवं सम्मान का समागम होता है।
अब यदि हम रिश्तों की बात करें तो रिश्ते बिना प्रेम के असंभव है। वैसे ही मित्रता का विश्लेषण करें तो प्रेम के बिना मित्रता भी असंभव है। इसीलिए उस भोज को जिसमें आप रिश्तेदारों एवं मित्रजनों को बुलाते हैं, उसे प्रीतिभोज कहा गया है एवं रिश्तेदारों एवं मित्रजनो को “स्नेहीजन”।
अब आप सब सोचेंगे की इस सबमें प्रेम किस स्वरुप में बीच में आया? जी मैं अब आपको प्रेम की मझधार से बाहर निकाल कर प्रेम के अलग अलग स्वरूपों में गोटे लगवाता हूँ –
- माता पिता द्वारा बच्चे को जन्म देकर इस संसार में लाना, उसे हर कदम पर सम्भलना एवं उसे बड़े होते हुए देखना; माँ का अपने बच्चों को हर मौके पर अपने आँचल में समेटना; पिता का उन्हें अपनी छाँव में सम्भालना; और हर ऐसा कार्य जो माता पिता अपने बच्चों के लिए करते हैं जिसमें त्याग भावना भी सम्मिलित होती है, वह उनके प्रेम से परिपूर्ण होता है ।
- बच्चे का बड़े होकर मित्रों से मिलाना; मित्रजनो के साथ अठखेलियां कर क्रीडांगन में क्रीड़ा करना; मित्रों संग घनिष्ठता से रहना, ये सभी प्रेम का दूसरा स्वरुप है ।
- और बड़े हो कर बच्चे का नौकरी पर जाना, वहां अपने सहकर्मियों के बीच सम्मिलित होना, सहकर्मियों की सहायता करना, ये भी प्रेम का एक स्वरुप है ।
- फिर बच्चे का विवाह होना, विवाह उपरांत पत्नी संग घर बसाना, अपने बच्चों के भविष्य की चिंता करना, यह भी प्रेम का एक और स्वरुप है ।
इस प्रकार यदि आप देखेंगे तो परिस्थितिवश प्रेम केवल अपना स्वरुप बदलता है, प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। मैं कर बार सुना है कि बेटा माता पिता के प्रेम में पत्नी से पक्षपात कर रहा है, या पत्नीप्रेम में माता पिता को भूला जा रहा है, किन्तु इसमें हो क्या रहा है? यही कि बेटा अंधत्व की ओर अग्रसर है। उसे प्रेम के विभिन्न स्वरूपों का ज्ञान नहीं है एवं वह अपने प्रेम को सही समयानुसार ढाल नहीं पा रहा है। कई बार लोगों ने यह भी प्रश्न किया की माँ और पत्नी में से किसका प्रेम ज्यादा महत्वपूर्ण है? इसका कोई उत्तर नहीं है एवं इसका कोई एक उत्तर देने वाले ने दोनों प्रेम की महत्ता नहीं समझी। यदि आप भी इसके उत्तर में माँ या पत्नी में से किसी के उत्तर पर जाते हैं तो आप निष्पक्ष नहीं हैं। माँ एवं पत्नी दोनों ही बलिदान का स्वरुप हैं। माँ जिसने हमें जनम दिया उसे लिए कष्ट उठाये, ९ महीने पेट में रखा और ना जाने कितने और बलिदान दिए क्या उसका प्रेम अपनी जगह महत्वपूर्ण नहीं है? पत्नी, जो अपने पीहर में सारे रिश्ते, मित्र, सखी सहेली, सब छोड़ कर आपके घर आई, जिसने आपके परिवार एवं वंश को चलने के लिए सारे कष्ट उठाये, आपके बच्चों को जन्म दिया, क्या उसका प्रेम अपनी जगह महत्वपूर्ण नहीं है? यही बात सास, ससुर, बहन, ननंद, साली पिता, भाई एवं पति के लिए भी लागू होती है। हर रिश्ते में अलग प्रेम भावना होती है एवं है प्रेम भावना का अपना महत्व होता है।
यही हमें कुछ करना है तो हर प्रेम भावना का औचित्य समझ उसे सम्भालना है। यही एक कार्य हम कुशलतापूर्वक कर लें, तो जीवन में काफी कठिनाइयाँ समाप्त हो जाएंगी।