कभी सोचता हूँ की भारत में समाचार पत्रों के माध्यम से अथवा विभिन्न टीवी चैनल्स के माध्यम से हमें क्या समाचार प्रेषित होते हैं। आज का पत्रकार मेरे विचार में पत्रकार काम और भांड ज्यादा बन चूका है। एक समय था जब पत्रकारिता आजीविका का साधन तो थी, किन्तु उसमें एक सत्यवादिता थी। आज सत्य का तो पता नहीं चलता किन्तु समाचारों में विश्लेषकों की वादिता रह गयी है। आज हमें समाचार नहीं सुनने को मिलते अपितु समाचारों के नाम पर विश्लेषकों का मत सुनने को मिलता है।
पत्रकारिता आज बिकाऊ व्यवसाय बन चुकी है एवं इसमें अधिकतर व्यक्ति केवल धनार्जन हेतु ही कार्यरत हैं। धनार्जन यदि आजीविका के लिए हो तो मैं समझ सकता हूँ, किन्तु आज के वरिष्ठ प्पत्रकार जिस विलासिता से जीवन यापन करते हैं, उससे तो अन्यथा ही प्रतीत होता है। ऐसे ही दो वरिष्ठ पत्रकार हैं इस राष्ट्र में जिनके नामो का उल्लेख किये बिना ही उनके कर्मों का विश्लेषण करने से हमें ज्ञात होगा कि वे एवं उनकी प्रजाति के पत्रकार किस प्रकार पत्रकारिता की मर्यादा का उलंघन एवं हनन करते हैं। वैसे आप समझ चुके होंगे मैं किन दो वरिष्ठ पत्रकारों के कार्यों का विश्लेषण करने का उल्लेख कर रहा हूँ। ये दोनों पत्रकार एक ही टीवी चैनल में लगभग एक साथ ही आये थे, किन्तु आज दोनों अलग अलग टीवी चैनल्स पर कार्यरत हैं।
तो पहले पत्रकार के कर्मों का विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि उन्हें काश्मीर एवं पाकिस्तान से कुछ अलग ही लग्गाव है। कारगिल युद्ध के समय प्रसिद्धि प्राप्त करने वाली ये महोदया, कभी भी कहीं भी भारत-पाकिस्तान एवं काश्मीर पर चर्चा प्रारम्भ कर देती हैं। इसका जीवंत उदहारण अमेरिका के न्यूयॉर्क प्रांत में उन्होंने राष्ट्र के समक्ष रखा। एक तीसरे राष्ट्र में जा कर भारत-पाकिस्तान के छात्रों का समूह बना कर इन्होने भारत एवं पाकिस्तान के प्रधान मंत्रियों के एक ही निवास स्थान में रहने किन्तु वार्तालाप ना करने के बारे में चर्चा कर दी। क्या इसे अशोभनीय नहीं कहा जाएगा? उसी चर्चा में इन्होने काश्मीर पर चर्चा का विषय भी चुना, क्या यही उनकी राष्ट्रवादिता है? इन्हे तो कारगिल के समय भी लज्जा नहीं आई थी जब अपने पत्रकार होने का धाक इन्होने सैनिकों पर दिखाई थी। अपनी प्रसिद्धि पर इन्हे इतना गर्व है कि जो ये कह दें वहीँ समाचार बनना चाहिए एवं वही प्रसारित भी होना चाहिए।
उनकी जोड़ी के दूसरे वरिष्ठ पत्रकार हैं जिन्होंने मेडिसन स्क्वायर पर राष्ट्रवाद का मखौल बनाया था। देश के प्रधान मंत्री को अमेरिका में आ कर लगभग आतंकवादी ही बना दिया था। सं २००२ से इनके जिव्हा से गुजरात के दंगों का प्रचार होता आया है एवं आज भी इन्हें कुछ और मिले ना मिले उस विषय पर ये वार्तालाप करने को तत्पर रहते हैं। इन्हें तो संपूर्ण भारतवर्ष में हुए दूसरे दंगों से कोई वास्ता ही नहीं है। इनकी सुई केवल वहीं जा कर अटक जाती है। अभी विगत कुछ दिनों में इन्होने एक और महान कार्य किया जिसमें इन्होने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को सार्वजनिक पत्र लिख कर मांस पर लगे प्रतिबन्ध पर प्रश्न किये। किसी भी नेता को नीचा दिखाने को तत्पर रहने वाले इन वरिष्ठ पत्रकार को इतना भी नहीं समझा कि थोड़ा शोध कर लेते।
अब यदि हमारे राष्ट्र में ऐसे २ महानुभाव पत्रकारिता के पाठ पढ़ाएंगे तो ये तो तय है कि हमें समाचार नहीं भाँडो की जिव्हा से निकले विभिन्न प्रकार के विश्लेषण ही सुनने को मिलेंगे एवं हम अपने विचार उन विचित्रपूर्वक विश्लेषणों से ही व्यर्थ पनपाएंगे।
पत्रकारिता के ऐसे पतन का मैं सर्वदा विरोधी रहा एवं रहूंगा।
क्या आप मेरे साथ सहमत हैं?