चीत्कार – एक कल्पना

विगत दिवसों में कुछ घटनाक्रम ऐसे हुए जिन्होंने मेरी अंतरात्मा को झंझोड कर रख दिया|  मैं एक पिता से मिला, यद्यपि उनका एक नाम भी है, किन्तु मेरे विचार में उनका नाम यहाँ उल्लेखित करना उचित नहीं होगा| एक पिता के रूप में मैंने उनको पहली बार देखा था; हालाँकि मैं उन्हें बरसों से जानता हूँ, किन्तु ऐसा पहली बार हुआ कि मैंने उनका पित्रत्वरूप देखा| बात यहीं समाप्त नहीं हुई, उनके पितृत्वरूप में मैंने उनके करुण, द्वेष एवं रोद्राव्तार देखे|

करुण भाव उनका अपनी उस बेटी के लिए, जिसे वो गोद में खेला न सके| उनका अपना वो अंश जिसका बचपन वो देख ना सके| एक पिता जिसे भाग्यविधाता ने पिता तो बनाया पर उसके भाग्य में बेटी का पित्रप्रेम नहीं लिखा|  अगर इसमें करुण भाव नहीं है तो क्या है?  उनके करुण रूप को मैंने अपनी कुछ पंक्तियों में इस प्रकार प्रदर्शित किया है –

भूत देखता हूँ जब मैं अपना
कहीं कुछ कमी सी लगती है
पाल पोस जिसे बड़ा करना था
उसके बचपन के कमी सी लगती है
नन्हे नन्हे उन क़दमों में
बाल थाप की कमी सी लगती है
एक पिता की गोद में
बिटिया की कमी सी लगती है
असमंजस में हूँ आज मैं
कि क्या तुझको खोज पाउँगा
तेरी पालकी न सही तो क्या
तेरी डोली को कांधा दे पाउँगा||
————————————————————————————————————-

उनका द्वेष एवं रोद्र भाव मैंने उनके अपनी भूतपूर्व अर्धांगिनी के लिए देखे जो उनकी बेटी की माँ हैं| आज वो साथ क्यों नहीं हैं, उनके उस नासूर को तो मैंने छेड़ा नहीं, किन्तु द्वेष क्यों है ये मैं भली भांती समझ गया| उनका द्वेष है कि उस महिला ने उन्हें उनकी अपनी बिटिया से दूर रखा, उन्हें अपनी बिटिया के बचपन से दूर रखा|  उनके इन भावों को मैं कुछ इस प्रकार वर्णित करता हूँ –

बहुत भाग्यशाली है तू
कि मेरी बिटिया की है तू माँ
यहाँ खड़ा मैं सोच रहा कि
बिटिया में ही अटके हैं तेरे प्राण
कसम ये खाता हूँ प्राण तेरे हर लूँगा
अपनी बेटी को मैं तुझसे दूर कर दूंगा
————————————————————————————————————-

उनके इस स्वरुप को देख कर मुझे अचम्भा तो हुआ, कितु उससे अधिक मुझे ग्लानी हुई, कि जिस नारी को हम अनेको-अनेक रूप में पूजते हैं वो आज इस प्रकार का व्यवहार प्रदर्शित कर रही है| उस महिला से अधिक मुझे उसके मात-पिता की शिक्षा पर क्षोभ हो रहा है जो अपनी बेटी की गलतियों का ढांक उसके दुर्व्यवहार को बढ़ावा दे रहे हैं||

Leave a Comment