कुछ शायराना अंदाज़ – ३

हसीन  साथ हो और गर शायरी कि बात हो तो रात कुछ इस कदर गुजरती है –

उनके शब्द——
इरादों की कोई सीमा नहीं होती…
इश्क़ की कोई तहजीब नहीं होती…
बस हम कदम बन के चले संग कोई…
तो कोई मंजिल कठिन नहीं होती…

 
हमारा  जवाब…..
तहजीब न हो गर इश्क की तो उसे वासना कहते हैं
इरादों कि गर सीमा ना हो तो इंसान को सरफिरा कहते हैं
तदबीर कुछ ऐसी है जहाँ के बाशिंदों की
क्या कहूँ कुछ दर्द उभर आता है सीने में
 
कठिन मंजीलें नहीं राहे मंजिल हुआ करती है
कि राह से बढ़कर कठिन राहे तन्हाई हुआ करती है
हम कदम हम राह बहुत मिल जाएंगे जहाँ में
हमसफ़र कम राहगुजर बहुत मिल जाएंगे इस जहाँ में

उनका  ख्याल…..
हर्फ़-ऐ-अश्क ग़र हम रोज़ लिखा करते…
तो अब तक पैमाना-ऐ-ग़ज़ल बन गई होती…
काश आपके आगोश में होता कुछ ऐसा नशा…
के जुस्तजू हमारी हकीकत बन गई होती…
आशिक़-ऐ-दिल की जुबां से ग़र अर्ज़ किया करते…
ख्वाबों की ताबीर ख़ुद-ब-ख़ुद हो गई होती…

हमारा ख्याल……
ग़ज़लों का पैमाना तो हम बहुत पी चुके
साकी के हाथों जाम बहुत पी चुके
आज बैठे हैं हम अश्कों का जाम पीते
गर इन्हें तेरे होंठ पीते तो क्या पीते
आगोश में मेरे जो तेरी जुल्फें रुक गयीं हैं
उनकी जुबानी अरज करते तो क्या करते
आलम-ऐ-हकीकत कुछ इस कदर है कातिल
कि आशिके-ऐ-दिल कि मय्यत सजी है

रिश्तों  पर उनकी सोच….
कुछ रिश्तों की गहराईयों को हम समझ न पाए हैं…
इस कदर डूबे की कभी उबर ही नहीं पाए हैं…
चाहत तो बहुत कुछ कहने की थी…
क्या कहें इस कोशिश में ऐसे खोए…
ना ही डूब पाए ना उबर ही पाए

रिश्तों  पर कुछ हमारी सोच…..
रिश्तों से गहरी तो सोच है तुम्हारी
कि रिश्तों कि डोर से बंधी उम्र है तुम्हारी
लरजते कांपते लबों पर थिरके जो शब्द
अश्कों की माला में पीरो दिए तुमने
मझधार में खड़े हो कर ऐ साहिल
गिला क्यूँ करते हो किनारे की दूरी का

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