कुछ शायराना अंदाज़

एक  हसीन दोस्त कि कुछ नायाब पेशकश कुछ इस क़द्र थी –

दर्द क्या होता है बताएँगे किसी रोज़,
कमाल की एक ग़ज़ल सुनायेंगे किसी रोज़,
उड़ने दो इन परिंदों को आज़ाद फिज़ाओ में,
हमारे हुए तो लौट के आएंगे किसी रोज़….
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उसपर हमारी कलम से निकले शब्द कुछ इस क़द्र हैं –

सिर्फ आपकी चंद पंक्तियों ने कुछ ऐसा वार किया,
कि दिल से आह ना निकली कलम ने शब्द बिखेर दिए

दर्द का गर अहसास ऐसा है तो उसे छुपाते क्यूँ हो
अपने गम को अपनी मुस्कराहट से दबाते क्यूँ हो
गर नगमें इतने ग़मगीन हैं तो गुनगुनाते क्यूँ हो
ऐ हसीन, खुदा से इतने नाराज़ हो तो इबादत करते क्यूँ हो
परिंदों को फिजाओं में गर उड़ाते देखने का शौक है
तो ऐ बंदे उन्हें अपना बना पिंजरे में कैद करते क्यों हो

कभी किसी कि आह कि आग से ना खेलना कातिल
कि आग से ना जले तो क्या आह तुम्हे ले डूबेगी

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