आलम-ऐ-मोहब्बत

आँखों के नशेमन से से जाम पिलाना चाहते हो
होठों से अपने जो पैगाम देना चाहते हो
दुनिया से बचाकर जो जुल्फों में घेरना चाहते हो
आज हिज्र के आलम में ये रुख किये जाते हो

बेसब्र क्यूँ हो इतना तन्हाई के डर से
क्यूँ थम जाते हैं कदम तुम्हारे खुदा के दर पे
क्या है जो यूँ इल्तेजा बेहिसाब किये जाते हो
ना चाहते हुए भी उनको रुसवा किये जाते हो
क्या दिल में कोई दर्द बसर करता है
क्या लफ्जों को हया का पर्दा कसता है
क्यों बयां नहीं करते हाल-ऐ-दिल का
ये दिल तो उन्ही से मोहब्बत करता है

Leave a Comment