शरणार्थियों की राजनीति

अफगानिस्तान में तालिबान द्वारा एक बार फिर से सत्ता हथियाने के बाद जो भगदड़ मची है, उससे भारत में राजनीतिक एवं पत्रकारिता की आग से रोटी सेकने वालों को जैसे जीवनदान ही मिल गया है। अत्यंत रोचक प्रश्न एक बार फिर से हमारे सामने है कि ऐसे तथाकथित बुद्धिजीवी फिर से एक बार भारत को शरणस्थली बनाने में केज हुए हैं, तब हमें क्या करना चाहिए?

पहले बांग्लादेशी आए, फिर रोहिंग्या आए, फिर सीरिया के समय भी बहुत बवाल हुआ, किंतु एक सीख जो तब भी भारत वाशियों ने नहीं ली और अब भी कदाचित संशय में ही लग रहें हैं कि मानवाधिकार के चलते शरणार्थियों को आने देना चाहिए या नहीं?

इस असमंजस की परिस्तिथि में सर्वप्रथम हमें यह देखना चाहिए कि बांग्लादेशियों एवं रोहिंग्याओं ने पलायन किया क्यों? एवं पलायन किया भी तो भारत में हाई क्यों? जब उनके अपने धर्मावलम्बियों की ५२ राष्ट्र पहले से ही हैं, तो फिर क्यों भारत ही? जब यहाँ पर हर दूसरे पहर यही चर्चा होती है कि भारत में असहिष्णुता बाढ़ रही है, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एवं अन्य हिन्दुवादी उदारता का पाठ त्याग रहे हैं, एवं भारत में अन्य धर्मावलम्बियों का जीवन दूभर हो रहा है, तो फिर इन्हें भारत में ही शरण क्यों लेनी है?

जब भारत में शरिया का पालन नहीं किया जा सकता, तो भारत में शरण क्यों लेनी है?

कदाचित इसका कड़वा सत्य यही है कि भारत में शरण ले कर, सनातन/ हिंदू धर्मावलम्बियों से अधिक जनसंख्या कर भारत को ही इस्लामिक राष्ट्र बना दिया जाए। हमारे सर्वधर्म सम्भावना के पाठ का दुरुपयोग तो सदियों से होता ही रहा है, किंतु जो अब हो रहा है उससे दुराचार का प्रसार ही होगा। कुछ वर्षों पहले, दिल्ली के डिफ़ेन्स कोलोनी जैसी जगहें अत्यंत सुरक्षित मानी जाती थी, किंतु उस समय आए शरणार्थियों की कारण वहाँ रात में अकेले बाहर निकलना दूभर हो गया था एवं अब तो दिल्ली का यह हाल हो गया है कि फ़्लाइओवर के ऊपर भी मज़ार बना दी गई। क्या यही परिस्तिथि हमें सम्पूर्ण राष्ट्र में देखनी है? क्या बंगाल, कश्मीर एवं केरल की परिस्तिथियाँ कम है व्यवस्थित करने के लिए कि हम सम्पूर्ण भारत में वही परिस्तिथियाँ उत्पन्न कर दें? यदि मेरे कथन पर किसी को संशय है, तो कृपया युरप में परितिथियाँ देख लें, वहाँ लंदन एवं अन्य बड़े नगरों में जो होता है उसके विडीओ बहुतायत में आपको मिलेंगे।

यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि भारत किसी भी अंतर्राष्ट्रीय शरणार्थी अनुबंध से बंधित नहीं है एवं भारत में किसे और क्यों शरण देनी है, यह भारत का अपना निर्णय होता है। अतः यदि कोई तथाकथित बुद्धिजीवी यह कहता है कि फलने अनुबंध से अथवा मानवाधिकार के माध्यम से इत्यादि इत्यादि, तो उन्हें यह ज्ञात करना सही हाई होगा कि भारत एक स्वायत्त राष्ट्र है एवं इसे अपने लाभ हेतु निर्णय लेने से कोई रोक नहीं सकता।

अंत में मेरा तथाकथित अतिविशिष्ट वर्ग के तथाकथित बुद्धिजीव पत्रकारों के लिए एक मात्र संदेश यही है, कि यदि भारत १९४७ में एक बार धर्म के नाम पर विभाजित हो चुका है, तो हमें उस विभाजन की पीड़ा को जीवित रखते हुए आने वाले समय के लिए पुनः वही परिस्तिथियाँ नहीं दोहरानी हैं। पहले ही हमारे राष्ट्र की सम्पदा का घुसपैठियों एवं शरणार्थियों द्वारा हनन हो रहा है, अब और नहीं। राष्ट्र विकास में धार्मिक उन्मादियों का तो कदाचित स्वागत नहीं होना चाहिए। अफ़ग़ान शरणार्थी जो भी होंगे, उन्हें अपने स्वार्थ के आगे किसी के जीवन का कोई मूल्य नहीं लगता, अतः अब और नहीं।