पेश-ऐ-खिदमत है आपके लिए उस ग़ज़ल के अल्फाज़ कि सुनकर जिसे आ जाती है आखों में नमीं। जगजीत साहब कि गई इस ग़ज़ल में डरा है तक अपना सा गहरा कि दर्द के इस दरिया को यूँ ही मापा नहीं करते –
हाथ छूटें भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते
वक्त कि शाख से लम्हे नहीं तोडा करते
जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन
ऐसी तस्वीर के तुकडे नहीं जोड़ा करते
शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा
जाने वालों के लिए दिल नहीं तोडा करते
लगके साहिल से जो बहता है उसे बहने दो
ऐसे दरिया का कभी रुख नहीं मोडा करते