भारतीय शिक्षण समस्या

विगत कुछ महीनो से मैं भारत के अभिभावकों के विडीओ देख रहा था जिसमें वे अपने बच्चों के स्कूल की फ़ीस को ले कर चिंतित दिख रहे थे एवं अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे। किंतु क्या ये अभिभावक यथास्तिथि से अवगत हैं कि उनके बच्चे भाए ही स्कूल में ना पढ़ रहे हों, किंतु शिक्षक उन्हें पढ़ने के लिए हर सम्भव प्रयंत कर रहे हैं?

अभिभावकों के लिए यह कहना बहुत सरल है कि स्कूल फ़ीस अथवा शुल्क क्यों लेता है? किंतु उन्हें यह ज्ञात नहीं है क्या कि स्कूल के शिक्षक का वेतन एवं उनके इंटर्नेट का भत्ता इसी फ़ीस से आता है? हाँ यदि कोई अभुभवक यह कहता है कि कुछ प्रकार की फ़ीस अनावश्यक है तो मानने में आता है। इस समय जब स्कूल बंद हैं तो निम्न प्रकार की फ़ीस स्कूल के प्रशाशन को नहीं लेनी चाहिए –

१। मेंट्नेन्स फ़ीस
२। स्पोर्ट्स एवं गेम्ज़ फ़ीस
३। कैंटीन फ़ीस (कुछ स्कूल यह फ़ीस भी लेते हैं)
४। सामाजिक (सोशल) शिक्षा फ़ीस
५। एक्स्ट्रा करिक्यलर फ़ीस इत्यादि

जहाँ तक स्कूल तटीयों फ़ीस ले रहे हैं, वहाँ तक स्कूल की फ़ीस समझ आती है, किंतु उपरोक्त फ़ीस इस समय बिलकुल भी नहीं लेनी चाहिए।

अब यदि हम अभिभावकों की बात करें तो किसी ने मुझे एक लेख भेजा था और कहा था कि यह हास्यास्पद है, किंतु जब मैंने वह लेख पढ़ा तो मुझे लेखक की अज्ञानता का बोध हुआ। उसमें हास्यास्पद कुछ नहीं था। लेख का सारांश कहूँ तो ऐसा था की एक अभिभावक ने स्कूल प्रशाशन को चिठी लिख कर स्कूल की फ़ीस के बदले उतना ही पैसा वापस माँगा। उसके अनुसार घर के इंटर्नेट का ख़र्चा, बिजय का ख़र्चा, बच्चे की पढ़ाई के समय का ध्यान रखना इत्यादि का समायोजन स्कूल की फ़ीस का दोगुना होता है।

अब ऐसी मानसिकता तो किसी ऐसे व्यक्ति में ही हो सकती है जो अपने बच्चे को स्कूल के भरोसे छोड़ कर अपना ही जीवन जीता हो। ऐसे अभिभावक तो उस श्रेणी में आते हैं जिन्हें माँ बाप ही नहीं कहना चाहिए। क्या जब बच्चे स्कूल जाते थे, उस समय उन्होंने अपने बच्चे पर ध्यान नहीं दिया, क्या उसके गृहकार्य एवं परीक्षा की तय्यारी पर ध्यान नहीं दिया? क्या उन्होंने बच्चे को पैदा करने के बाद उसके भरण पोषण के लिए भी सरकार से शुल्क लिया? इस प्रकार की मानसिकता अत्यंत ही घृणात्मक होती है क्यूँकि ऐसी सोच वाले अभिभावक को तो स्कूल प्रशाशन को मात्र दो टूक जवाब देना चाहिए – “यदि आपको इतनी ही असुविधा हो रही है तो अपने बच्चे को उसके शिक्षक के घर भेज दें एवं उसे वहीं पढ़ने का बोलें। उसके बाद उस शिक्षक के घर का किराया स्कूल की फ़ीस के साथ ही स्कूल में जमा करवा दें, साथ ही यदि आपका बच्चा स्कूल के समय से अधिक शिक्षक से पढ़ेगा तो प्रत्येक सबजेक्ट की मासिक तटीयों फ़ी लेने के लिए शिक्षक को स्कूल प्रशाशन की और से पूरी छोट है।”

शिक्षक आज उस माध्यम से पढ़ा रहे हैं जिसका उन्हें आज के पहले बोध ही नहीं था। कई शिक्षक जो ५० अथवा ५५ की उम्र से ऊपर हैं एवं जिन्होंने जीवन में कभी कैमरा के सामने आने की सोचा भी नहीं होगा, वे आज आपके बच्चों को पढ़ने के लिए इंटर्नेट के माध्यम से नोट्स बना कर आपके ही बच्चों को पढ़ा रहे हैं। सोचिए उनके लिए कितना कठिन होगा कि ख़ाली कमरे में मात्र एक कैमरा लगा कर बोर्ड पर बच्चों को पढ़ने के लिए चैप्टर डर चैप्टर नोट्स बनाते हुए उन्हें विस्तारपूर्वक समझना? उनके अपने बच्चे भी दूसरे कमरों में बंद अपनी क्लास में पढ़ते होंगे, किंतु एक कमरे से दूसरे कमरे में आवाज़ ना जाए इसका भी वो कितना ध्यान रखते होंगे। सोचिए मुंबई जैसे शहर में जहाँ कोई शिक्षक किसी चाल ऐन रहते होंगे, वह कितनी मेहनत करते होंगे शोर से दूर एक विडीओ बनाने के लिए।

जहाँ मैंने स्कूल प्रशाशन से फ़ीस कम करने की बात कही, वहीं अभिभावकों से भी यही कह सकता हूँ कि शिक्षक और शिक्षा का अपमान मत कीजिए। यदि आपको लगता है कि किसी स्कूल में आपको फ़ीस नहीं देनी, तो कृपया अपने बच्चे को उस स्कूल से निकाल कर किसी दूसरे स्कूल में डाल दीजिए, अथवा सरकारी स्कूल में डाल दीजिए। क्या अंतर होगा? आप ही जैसे हैं नो वो लोग जो कहते हैं “स्कूल नहीं तो फ़ीस नहीं?” चलिए, यदि इतना ही कष्ट है तो बड़े स्कूल से अपने बच्चे का नाम कटवा कर किसी कम नामचीन स्कूल में डाल दीजिए, ना बाँस रहेगी ना बजेगी बाँसुरी।